लफ़्ज़ कभी अपने आप फिसलते है
कभी बेख़ौफ़ उबलते हैं
नहीं करते ग़ुलामी मेरी ख़ुदगर्ज़
कहाँ मेरे कहे किसी लकीर पे चलते हैं ?
कभी शर्माते हैं
नाराज़ ना हो तुम
इस बात से घबराते है
निकलते तो है तेरी तारीफ़ की डगर में
मगर शर्माके घर लौट आते हैं ।
कुछ अधूरे लफ़्ज़
कुछ गिर के टूटे लफ़्ज़
कुछ क़लम की महीन नोक में अटके
तेरे दिल को खटखटाते बेबस लफ़्ज़
काश ये जाएँ तेरे पीछे
और बाँध लाएँ तुझे अपनी गिरफ़्त में
या खींचे तुम्हें दूर से ही
चिल्लाएँ या गिड़गिड़ाएँ
बहलाएँ या फुसलाएँ
बस मेरे आँगन ले आएँ ।
जुबान पे गुमसुम बैठे
ये कुछ ख़ामोश लफ़्ज़ ।
- संजय धवन